महिला आरक्षण

         महिला आरक्षण की प्रासंगिकता
मुद्दा आरक्षण का या पहचान कमजोरी की? आज 21वीं सदी जिसे आधुनिक काल की श्रेणी में रखा गया है सम्पूर्ण विश्व व जनमानस विकास की राह में आगे बढ़ता जा रहा है। आज एक श्लोगन अत्यंत ही बहुचर्चित है- "बेटी बचाओ, बेटी बढ़ाओ"। यह श्लोगन कितना सार्थक है? आज भारतीय समाज में लैंगिक असमानता को जड़ से खत्म करने के लिए सत्ता पक्ष तथा जनता पक्ष द्वारा आए दिन नए-नए कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है। जिस देश में बेटियों को बोझ समझा जाता हो, पैदा होने से पहले मार दिया जाता हो, अपनाने से पूर्व ही पराया कर दिया जाता हो वहां लैंगिक असमानता का अपने पैर पसारना तो स्वाभाविक ही है। लैंगिक असमानता को पूर्णतः समाप्त करने के लिए  उपयुक्त हल के रूप में "आरक्षण" जैसी कुव्यवस्था का सहारा लिया जाता है। परंतु क्या यह वाकई एक उपयोगी व्यवस्था है? शायद नहीं! महिलाएं इतनी भी कमजोर नहीं कि अपने जीवन स्तर को पुरुषों के समान उठाने के लिए उन्हें आरक्षण का सहारा लेने की आवश्यकता पड़े। जहां एक ओर लड़कियों को लड़कों के समान समझा जाता है वहीं दूसरी ओर उन्हें आरक्षण देकर कमजोर बनाया जाता है। आज महिलाओं ने पुरषों के साथ कंधा मिलाकर चलने की अपनी योग्यता को जगजाहिर कर दिया है। महिलाएं तथा पुरुष दोनों ही समाजनुमा सिक्के के दो अलग-अलग पहलु ही सही किंतु दोनो का मूल्य समान है। महिलाओं के लिए आरक्षण के पक्ष में खड़े लोगो के कथन "आरक्षण महिलाओं को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करने वाली एक अच्छी व्यवस्था है जिसके माध्यम से उनका मनोबल बढ़ता है और वे विकास की राह में अग्रसर होती हैं" को पूर्णतः सही कहना गलत होगा। आरक्षण कोई सुव्यवस्था नहीं अपितु एक शॉर्टकट है जिससे महिलाओं का भला नहीं हो सकता। किसी भी व्यक्ति को आरक्षण का सहारा देकर उसे विकलांग बना दिया जाता है साथ ही योग्यता को भी पीछे धकेल दिया जाता है जिसका भुगतान समाज को कार्य की असंतुष्टि के माध्यम से करना पड़ता है। वैसे भी आरक्षण लोकतंत्र विरोधी व्यवस्था है क्योंकि यह सभी को समान अवसर के अधिकार से वंचित करती है। ऐसे में लाला लाजपत राय का एक कथन याद आता है। उन्होंने कहा था कि "मनुष्य अपने गुणों से आगे बढ़ता है न कि दूसरों की कृपा से।" ठीक इसी तरह महिलाओं में इतनी योग्यता है कि उन्हें किसी तरह के आरक्षण की कोई आवश्यकता नहीं। देश में आज से कई वर्ष पूर्व भी जब महिलाओं को शिक्षा प्राप्ति तक का अधिकार नहीं दिया जाता था अथवा उस वक़्त किसी तरह के आरक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं थी तब के दौर में भी कई स्त्रियों ने समाज में अपनी एक अलग पहचान स्थापित की थी जिनमें कस्तूरबा गांधी तथा सावित्रीबाई फुले मशाल के रूप में आज भी याद की जाती हैं।
महिला आरक्षण के नाम पर फैलाई गई यह कुव्यवस्था केवल वोट बैंक का खेल मात्र है इससे महिलाओं को कोई लाभ नहीं।

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